करवाचौथ की शाम छलनी से क्यों देखते है चाँद को, …जानिए महत्व और खास बातें

पति की लंबी आयु के लिए हिंदू धर्म में महिलाएं करवाचौथ का व्रत रखती हैं। यह त्यौहार दिवाली से कुछ दिन पहले कार्तिक मास, कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं पूरे दिन बिना कुछ खाए पिए निर्जला व्रत रखती हैं। सुबह सूर्योदय होने के साथ ही पूजा-पाठ की प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जो रात को चंद्र दर्शन के साथ समाप्त होती हैं। इसके अलावा इस व्रत के विधान में करवाचौथ की कहानी का भी खास योगदान होता है। महिलाएं 16 श्रंगार कर इस व्रत की कथा पढ़कर सुनाती हैं, तब जाकर ये व्रत पूरा माना जाता है। आइए जानते है करवा चौथ व्रत कथा:

एक पतिव्रता स्त्री जिसका नाम वीरवती था इसने विवाह के पहले साल करवाचौथ का व्रत रखा। लेकिन भूख के कारण इसकी हालत खराब होने लगी। भाईयों से बहन की यह स्थिति देखी नहीं जा रही थी। इसलिए चांद निकलने से पहले ही एक पेड़ की ओट में छलनी के पीछे दीप रखकर बहन से कहने लगे कि देखो चांद निकल आया है। बहन ने झूठा चांद देखकर व्रत खोल लिया। इससे वीरवती के पति की मृत्यु हो गई।

वीरवती को जब पति की मृत्यु की सूचना मिली तो वह व्याकुल हो उठी। वीरवती को पता चला कि उसके भाइयों ने जिसे चांद कहकर व्रत खोलवा था वह चांद नहीं छलनी में चमकता दीप था। असली चांद को देखे बिना व्रत खोलने के कारण ही उसके पति की मृत्यु हुई है। वीरवति ने अपने पति का अंतिम संस्कार नहीं होने दिया बल्कि उसके शव को सुरक्षित अपने पास रखा और अगले वर्ष करवाचौथ के दिन नियम पूर्वक व्रत रखा जिससे करवामाता प्रसन्न हुई। वीरवती का मृत पति जीवित हो उठा। सुहागन स्त्रियां इस घटना को हमेशा याद रखें। कोई छल से उनका व्रत तोड़ न दे, इसलिए स्वयं छलनी अपने हाथ में रखकर उगते हुए चांद को देखने की परंपरा शुरू हुई। करवा चौथ में छलनी लेकर चांद को देखना यह भी सिखाता है कि पतिव्रत का पालन करते हुए किसी प्रकार का छल उसे प्रतिव्रत से डिगा न सके।

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करवाचौथ में सबसे अहम करवा होता है। करवा का अर्थ होता है मिट्टी का बर्तन। इस व्रत में सुहागिन स्त्रियां करवा की पूजा करके करवा माता से प्रार्थना करती है कि उनका प्रेम अटूट हो। पति-पत्नी के बीच विश्वास का कच्चा धागा कमजोर न हो पाए। इसके लिए मिट्टी के बरतन को प्रतीक चिन्ह के रूप में प्रयोग किया जाता है, क्योंकि मिट्टी के बर्तन को ठोकर लग जाए तो चकनाचूर हो जाता है, फिर जुड़ नहीं पाता है। इसलिए हमेशा यह प्रयास बनाए रखना चाहिए कि पति-पत्नी के प्रेम और विश्वास को ठेस नहीं पहुंचे।

कैसे करें पूजा:
-सूरज के उदय होने से पहले नहाकर व्रत का संकल्प लें। करवाचौथ का निर्जला व्रत सूर्योदय के साथ आरंभ हो जाता है। इस व्रत को के दौरान माता पार्वती, भगवान शिव और गणेश जी का ध्यान करते रहना चाहिए।
-दीवार पर गेरु से फलक बनाकर पिसे हुए चावलों के घोल से करवा बनाएं। इस कला को करवा धरना कहा जाता है जो एक पौराणिक परंपरा है।
-आठ पूड़ियों की अठावरी, हलवा और पक्का खाना बनाना चाहिए।

-पीली मिट्टी से मां गौरी और गणेश जी का स्वरुप बनाएं। मां गौरी की गोद में भगवान गणेश का स्वरुप बैठाएं। इन स्वरुपों की पूजा शाम के समय की जाती है।
-माता गौरी को लकड़ी के सिंहासन पर बैठाएं और लाल रंग की चुन्नी पहनाएं और श्रृंगार सामाग्री से श्रृंगार करें। इसके बाद उनकी मूर्ति के सामने जल से भरा हुआ कलश रख दें।
-गौरी और गणेश के स्वरुपों की पूजा करें। इसके साथ- नम: शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संतति शुभाम्। प्रयच्छ भक्तियुक्तनां नारीणां हरवल्लभे। अधिकतर महिलाएं अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार ही पूजा करती हैं।

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-इसके बाद करवाचौथ की कहानी सुननी चाहिए। कथा सुनने के बाद घर के सभी बड़ों का आशीर्वाद लेना चाहिए।
-चांद निकलने के बाद छन्नी के सहारे चांद को देखना चाहिए और अर्घ्य देना चाहिए। फिर पति के हाथ से अपना व्रत खोलना चाहिए।

आईये जानते हैं 16 श्रृंगार के बारे में:
मांग टीका: यह पति द्वारा प्रदान किये गये सिंदूर का रक्षक होता है।
बिंदिया: इसे इस तरह से लगाया जाता है कि मांगटीका का एक छोर इसे स्पर्श करे।
काजल: काजल अशुभ नजरों से बचाव करता है वहीं ये आपकी सुंदरता में चार चांद लगा देता है।
नथुनी: नाक में पहना जाने वाला यह आभूषण अपनी अपनी परंपरा व रस्मों रिवाज में छोटा-बड़ा होता है।

सिंदूर: इस श्रृंगार के माध्यम से प्रथम बार कोई पुरूष किसी स्त्री को अपनी संगिनी बनाता है।
मंगलसूत्र: ये भी सुहाग सूचक है, जिसके बिना हर शादी अधूरी है।
कर्णफूल: श्रृंगार नंबर 7 को कर्णफूल या ईयर रिंग कहते हैं।
मेंहदी: श्रृंगार में नंबर 8 का स्थान ‘मेंहदी’ का है।

कंगन या चूड़ी: इसके बिना हर श्रृंगार अधूरा है।
गजरा: बालों को संवार कर उसमें गजरा सजानेे के पीछे कारण ये है कि जब तक बालों में सुगंध नहीं होगी तब तक आपका घर नहीं महकेगा। दुल्हन वो ही अच्छी मानी जाती है जिसके बाल पूरी तरह से व्यवस्थित होते हैं।
बाजूबंद: कुछ इतिहासकारों ने बाजूबंद मुगलकाल की देन माना है लेकिन पौराणिक कथाओं में इसकी खूब चर्चा है। यह बड़ी उम्र में पेशियों में खिंचाव और हड्डियों में दर्द को नियंत्रित करता है।
अंगुठी: हम आपको बताते हैं श्रृंगार नंबर 12 यानी ‘अंगुठी’ के बारें में। वैसे 11 वां श्रृंगार ‘आरसी’ के रूप में जाना जाता है। आरसी आइने को कहते हैं लेकिन यहां ये भाव नहीं है। आरसी एक सीसा लगी हुई अंगुठी होती है जो कि दायें हाथ की अनामिका में पहनीं जाती हैं।

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कमरबंद: कमरबंद को तगड़ी भी कहते हैं। काम में उत्साह और शरीर में स्फूर्ति का संचार बना रहे। उत्तम स्वास्थ्य के लिए कमरबंद स्वास्थ्य कारकों से भी आवश्यक और उत्तम माना जाता है।
पायल या पाजेब: श्रृंगार में 14 वां नंबर है पायल या पाजेब का। दुल्हन अपने घर की गृहलक्ष्मी होती है। उसका संचारण और सुभागमन बहुत शुभ माना जाता है।
बिछिया: पैरों में अंतिम आभूषण के रूप में बिछिया पहनी जाती है। दोनों पांवों की बीच की तीन उंगलियो में बिछिया पहनने का रिवाज है।
परिधान यानी कपड़ा: अंतिम और 16वां सबसे महत्वपूर्ण श्रृंगार होता है परिधान। शारीरिक आकार प्रकार के अनुसार परिधान में रंगो का चयन स्त्री के तंत्रिका तंत्र को मजबूत और व्यवस्थित करता है।